शाम होते ही चिरागों को बुझा देता हूँ
यह दिल ही काफ़ी है तेरी याद मैं जलने के लिए
नक्श फरियादी है किसकी शोखी-ऐ-तहरीर का
काघज़ी है पैरहन हर पैकर-ऐ-तस्वीर का
कावे-कावे सख्त_जानी हाय तन्हाई न पूछ
सुबह करना शाम का लाना है जू-ऐ-शीर का
दिल-ऐ-नादाँ तुझे हुआ क्या है ?
आख़िर इस दर्द की दावा क्या है
हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
जब की तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा, 'इ खुदा ! क्या है
हमने कितनी कोशिश की उन्हें मानाने की,
न जाना कहा से सीख ली उन्होंने
यह अदा जिद्द पर उतर जाने की
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Tuesday, June 17, 2008
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