Thursday, June 19, 2008

मिर्जा ग़ालिब ग़ज़ल

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हजारो ख्वाहिशे ऎसी की हर ख्वाइश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यू न मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो खून जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यू न दम निकले

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए है न लेकिन
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

भरम खुल जाए जालिम तेरे कामत की दराजी का
अगर इस तुर्रा-ऐ-पुरपेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले

मगर लिखवाये कोई उसको ख़त तो हमसे लिखवाये
हुई सुबह और घर से कान पर रक्खर कलम निकले

हुई इस दौर में.न माँ.न्सुउब मुझसे बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहा.न से जाम-ऐ-जम निकले

हुई जिनसे तवक्को खस्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी जियादा खस्ता-ऐ-तेग-ऐ-सितम निकले

मुहब्बत में.न नही.न है फर्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते है.न जिस काफिर पे दम निकले

ज़रा कर जोर सीने पर की तीर-ऐ-पुरसितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले जो दिल निकले तो दम निकले

खुदा के वास्ते परदा न काबे से उठा जालिम
कही.न ऐसा न हो या.न भी वही काफिर सनम निकले

कहा.न मैखाने का दरवाजा 'घलिब' और कहा.न वाइज़
पर इतना जानते है.न कल वो जाता था के हम निकले

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