छू गया वहीं हवा का झोका मन को,
जो कभी तपती दोपहर में अचानक,
आराम देता था पसीने से लथपथ तन को,
तपती दोपहर में गर्मी से बेहाल,
अपने बस्तों को कंधों पर उठाए,
तेज तो कभी मध्म होती चाल,
आते ही मां के गले से लिपट जाना,
जैसे आंगन की पेड़ की ठंडी छांव,
मस्ती के साथ मां को थोड़ा सा सताना,
रोटी न खाने की थोड़ी सी अनाकनी,
मां का प्यार और दुलार का वह हाथ,
बना देता था हमको दुनिया में सबसे धनी,
जब कालेज पहले दिन था हमकों जाना,
मन में डर कुछ नया करने की उमंग,
फिर लगा जैसे अब बदल गया जमाना,
हाथों में डिग्री आंखों को थी सपनों की तालाश,
चल पड़े हमारे कदम खुद व खुद राहों पर,
जहां आज कल समय नहीं है किसी के पास,
अब तो सब है उन यादों का हिस्सा,
कभी दादी तो कभी नानी की बातों में,
बना रहता था परियों का भी किस्सा,
अब न लौटेगे वो दिन और रातें,
जब घंटे चांदनी रात में बैठ कर,
किया करते थे तारों और चांद से बातें,
छू गया वही हवा का झोका मन को...
2 comments:
आप ने क्या बात लिखी है मन प्रसन हो गया वह सच में बहुत खूब ..पहली बार ये पढने को मिला ...
बहुत उम्दा!! वाह!
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